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गुरुवार, 22 जून 2023

Opposition Mega Meeting in Bihar: करीब दो दर्जन दलों का विपक्षी महाजुटान बिहार में ही क्यों, क्या हैं राजनीतिक मायने और छिपे संदेश?



Opposition Mega Meeting in Bihar: करीब दो दर्जन दलों का विपक्षी महाजुटान बिहार में ही क्यों, क्या हैं राजनीतिक मायने और छिपे संदेश?

  बिहार की राजधानी पटना में 23 जून को करीब दो दर्जन राजनीतिक पार्टियों (20 दल) का महाजुटान होने जा रहा है। अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इस महाजुटान में विपक्षी दल केंद्र की सत्ताधारी बीजेपी को हराने की रणनीति को अमली जामा पहना सकते हैं। यह बैठक मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार के एक अन्ने मार्ग स्थित सरकारी आवास के नेक संवाद कक्ष में सुबह 11 बजे से शाम चार बजे तक होगी। मुख्यमंत्री आवास में मेहमानों के लंच और डिनर की विशेष तैयारी चल रही है, जिसमें बिहारी व्यंजन भी परोसे जाने हैं।


विपक्षी एकता की इस महाबैठक में कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी, पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी की अध्यक्ष ममता बनर्जी, दिल्ली के सीएम और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल, तमिलनाडु के सीएम और डीएमके नेता एमके स्टालिन,झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन, नेशनल कॉन्फ्रेन्स के फारुक अब्दुल्ला, पीडीपी की महबूबा मुफ्ती, सपा के अखिलेश यादव, उद्धव ठाकरे और वाम दलों के नेता भी शामिल होंगे। बैठक की अगुवानी नीतीश कुमार और उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव करेंगे।  पिछले कुछ महीनों से नीतीश कुमार विपक्षी दलों को जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।


पोस्टरों से पटा पटना:

विपक्षी दलों की महाजुटान से पहले पटना की सड़कों पर कई जगह बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स और पोस्टर-बैनर लगाए गए हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक बड़ा पोस्टर पटना के मध्य में बीरचंद पटेल पथ पर उनकी पार्टी जेडीयू के मुख्यालय के बाहर लगाया गया है। उस पोस्टर पर संदेश लिखा हुआ है, "मन की नहीं, काम की", जो स्पष्ट रूप से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के "मन की बात" कार्यक्रम पर कटाक्ष है। इस पोस्टर के साथ एक बैनर है, जिस पर लिखा है: "आगाज़ हुआ, बदलाव होगा।"


बिहार में महाजुटान क्यों?

बिहार को लोकतंत्र के प्रयोग की धरती कहा जाता है। केंद्र की पहली गैर कांग्रेस सरकार बनाने की बुनियाद और तत्कालीन केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की शुरुआत 1974-75 में बिहार की धरती से ही हुई थी। तब जेपी (जयप्रकाश नारायण) ने केंद्र की इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ बिगुल फूंका था और 1977 में पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी।तब संयुक्त बिहार की 54 लोकसभा सीटों में से 52 पर भारतीय लोक दल ने जीत तय की थी। एक पर जनता कांग्रेस और एक पर निर्दलीय ने जीत हासिल की थी। तब भारतीय लोक दल, जनसंघ और कांग्रेस (ओ) ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया था लेकिन चुनाव BLD के ही सिंबल पर लड़ा था।


1989 में भी दोहराया इतिहास:

1989 में भी कांग्रेस की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के खिलाफ जनता दल  ने अकेले बिहार की 54 में से 32 सीटें जीती थीं, जबकि बीजेपी ने पहली बार आठ सीटें जीती थीं। कांग्रेस महज चार सीटों पर सिमट गई थी। वाम दलों ने भी पांच सीटें जीती थीं जिसने वीपी सिंह सरकार को समर्थन दिया था। एक बार फिर बिहार केंद्र की सत्ता के खिलाफ सियासी प्रयोग की जमीन बनता दिख रहा है।


पूर्वी राज्यों को खास संदेश:

2014 में पीएम पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने वाराणसी को अपना चुनाव क्षेत्र चुनकर पूर्वी राज्यों खासकर यूपी और बिहार को खास संदेश देने की कोशिश की थी, जहां से कुल लोकसभा के 120 सांसद चुनकर आते हैं। उसी तर्ज पर विपक्षी गठबंधन वाराणसी से करीब 250 किलोमीटर पूर्व की ऐतिहासिक नगरी पाटलिपुत्र से विपक्षी महाजुटान का संदेश बिहार, झारखंड, यूपी और पश्चिम बंगाल को देना चाह रहा है, जहां से कुल 176 सांसद चुनकर आते हैं। यह संख्या कुल लोकसभा सदस्यों की संख्या का एक तिहाई से ज्यादा है।बिहार में जेडीयू और आरजेडी के मिलने से बीजेपी की स्थिति कमजोर हुई है, वहीं पश्चिम बंगाल में बीजेपी अभी भी दूसरे नंबर पर है। झारखंड में भी बीजेपी कमजोर है लेकिन यूपी में बीजेपी अभी भी मजबूत स्थिति में है और वहां  80 लोकसभा सीटें हैं। विपक्षी दलों की मंशा है कि विपक्षी एकता स्थापित कर यूपी समेत इन सभी राज्यों में बीजेपी को कड़ी चुनौती दी जाए।


पिछड़े, दलितों और मुस्लिमों पर फोकस:

बिहार की दोनों सत्ताधारी पार्टी (जेडीयू और आरजेडी) लंबे समय से पिछड़ों, अति पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों के वोट बैंक की राजनीति करती रही है। दोनों दलों के एकसाथ आने से राज्य की करीब 35 से 40 फीसदी जातीय आबादी को महागठबंधन के पक्ष में होने का दावा किया जा रहा है। विपक्षी दलों की कोशिश है कि पिछड़ों, दलितों और अल्पसंख्यकों की विपक्षी गठबंधन के प्रति लामबंदी का संदेश बिहार से निकलकर अन्य राज्यों में भी जाएगा और उससे 2024 के चुनावों में बीजेपी के खिलाफ हवा बनाने में सफलता मिल सकेगी। विपक्षी दल बीजेपी को पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक विरोधी बताते रहे हैं। हालिया चुनावों में कांग्रेस ने भी इस लाइन पर लीड हासिल की है।


क्षेत्रीय दलों की ताकत को पहचान:

बिहार में इस महाजुटान के पीछे क्षेत्रीय दलों की ताकत को पहचानने और उसे तवज्जो देने का भी एक स्पष्ट संदेश है। पिछले एक दशक में केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली सरकार के साथ प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय फलक पर भाजपा के उभार ने राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों को कमतर किया है।ऐसे में अगर भाजपा को चुनौती देनी है तो क्षेत्रीय दलों की भूमिका 2024 के आम चुनावों में महत्वपूर्ण हो जाती है। उम्मीद की जा रही है कि लोकसभा चुनावों की लड़ाई में बीजेपी को हराने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, दिल्ली, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में क्षेत्रीय दल अहम भूमिका निभा सकते हैं। विपक्षी गठबंधन में क्षेत्रीय दल इसलिए भी अहम माने जा रहे हैं क्योंकि भाजपा-एनडीए के खिलाफ लगभग 300 सीटों पर उम्मीदवार उतार सकते हैं।

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